जीव जगत का वर्गीकरण नोट्स प्रश्न उत्तर |The Living World Classification in Hindi

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जीव जगत का वर्गीकरण नोट्स प्रश्न उत्तर 

The Living World Classification in Hindi



जीव जगत का वर्गीकरण नोट्स प्रश्न उत्तर

जंतुओं का वर्गीकरण 

जन्तुओं के प्रथम वर्गीकरण का श्रेय ग्रीक के दार्शनिक अरस्तू (Aristotle, 384-322 B.C.) को जाता है, जिन्हें' जन्तु विज्ञान का जनक' (Father of Zoology) कहा जाता है। अरस्तू ने जन्तुओं का वर्गीकरण रुधिर (Blood) के रंग के आधार पर अपनी पुस्तक "हिस्टोरिया एनिमेलियम (Historia Animalium) में किया। उन्होंने जन्तु जगत को दो महासमूहों में वर्गीकृत किया-

 

(A) महासमूह 1. इनाइमा (Enaima ) इसके अन्तर्गत लाल रुधिर युक्त कशेरुक जन्तुओं को रखा गया है।  

(B) महासमूह 2. एनाइमा ( Anaima ) इसके अन्तर्गत अकशेरुक जन्तुओं को रखा गया है जिनका रक्त लाल नहीं होता है।


पादप वर्गीकरण

थियोफ्रेस्टस (Theophrastus, 370-285 B.C.), जिन्हें ' वनस्पति विज्ञान का जनक' (Father of Botany) कहा जाता है, ने पादप स्वभाव के आधार पर समस्त पादपों को चार समूहों में विभाजित किया- 

1. वृक्ष (Tree), 

2. झाड़ी (Shrubs), 

3. छोटी झाड़ी (Under Shrubs), 

4. शाक (Herbs) |


आधुनिक वर्गीकरण

लिनियस को "आधुनिक वर्गिकी का जनक" (Father of Modern Taxonomy) कहा जाता है। कार्ल वॉन लिने (Karl Von Linne) जो बाद में कैरोलस लिनियस (Carolus Linnaeus. 1707-1778) के नाम से प्रसिद्ध हुए,  उन्होंने 1758 में सिस्टेमा नेचुरी (Systema Naturae) नामक पुस्तक की रचना की।

 

सर्वप्रथम नई वर्गिकी विज्ञान (New systematicशब्द का प्रयोग 

जूलियन हक्सले (Julian Huxley, 1940) ने सर्वप्रथम नई वर्गिकी विज्ञान (New systematics) शब्द का प्रयोग किया जिसमें जैव-विविधता का अध्ययन प्रायोगिक रूप से करने पर जोर दिया गया है। अत: इन्होंने इसे प्रायोगिक वर्गिकी (Experimental taxonomy) भी कहा।

 

Given below are some scientist’s contributions to biology : 

  • Carolus Linneaus(Father of Taxonomy)-He gives the 2 kingdoms system.
  • Hackel-  He gives the 3 kingdom systems.
  • Copeland–He gives the 4 kingdom systems.
  • R.H Whittaker-He gives the 5 kingdom system and is the popular one.
  • Carl Woese-He gives the 6 kingdom system and is the latest.


पाँच - जगत वर्गीकरण 


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जीवों की विविधताओं एवं विषमताओं के कारण तथा पूर्व में दिए गए वर्गीकरणों की कमियों को देखते हुए सन् 1969 में अमेरिकी वर्गिकीविज्ञ आर. एच. विटेकर (R. H. Whittaker) ने जीवों को पाँच जगतों में विभाजित किया- 

यह पाँच-जगत है- मोनेरा (Monera). प्रोटिस्टा (Protista). प्लान्टी (Plantae), कवक (Fungi) तथा एनिमेलिया (Animalia) , विटेकर ने अपने वर्गीकरण में विषाणुओं को सम्मिलित नहीं किया था। विषाणु कोशिकीय नहीं होते हैं तथा ये सजीव (Living) एवं निर्जीव (Non-living) के बीच की कड़ी माने जाते हैं।

 

पाँच - जगत वर्गीकरण के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं- 

1. कोशिका संरचना की जटिलता (Complexity of cell structure) - प्रोकैरियोटिक (Prokaryotic) अथवा यूकैरियोटिक (Eukaryotic) कोशिकाएँ। 

2. शरीर संगठन की जटिलता (Complexity of body organisation)- एककोशिकीय (Unicellular) अथवा बहुकोशिकीय (Multicellular) | 

3. पोषण विधि (Mode of mutrition)-स्वपोषित (Autotrophic) अथवा परपोषित (Heterotrophic)। परपोषित जीव पुनः दो प्रकार से भोजन ग्रहण करते हैं-अवशोषण (Absorption) अथवा अन्तर्ग्रहण (Ingestion )  

4. जीवन पद्धति (Life style) - उत्पादक (Producers), उपभोक्ता (Consumers) अथवा अपघटक (Decomposers)


मोनेरा जगत एवं लक्षण 

मोनेरा (Monera) जगत में सभी प्रोकैरिओटिक जीवों को सम्मिलित किया गया है। इस जगत के जीव सूक्ष्मतम तथा सरलतम होते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस जगत के जीव प्राचीनतम हैं। मोनेरा जगत के जीव उन सभी स्थानों में पाये जाते हैं जहाँ जीवन की थोड़ी भी संभावना मौजूद है, जैसे-मिट्टी, जल, वायु, गर्म जल के झरने (80°C तक), हिमखण्डों की तली, रेगिस्तान आादि में।

 

मोनेरा जगत के जीवधारियों के मुख्य लक्षण 

  1. इनमें प्रोकैरिओटिक प्रकार का कोशिकीय संगठन पाया जाता है। अर्थात् कोशिका में आनुवंशिक पदार्थ. किसी झिल्ली द्वारा बँधा नहीं होता बल्कि जीवद्रव्य में बिखरा पड़ा रहता है। 
  2. इनकी कोशिका भिति अत्यंत सुदृढ़ रहती है। इसमें पोलीसैकेराइड्स के साथ एमीनो अम्ल भी होता है। 
  3. इनमें केन्द्रकीय झिल्ली अनुपस्थित होता है। 
  4. इनमें माइटोकॉण्ड्रिया, गॉल्जीकाय तथा रिक्तिका भी अनुपस्थित होती हैं। 
  5. ये प्रकाशसंश्लेषी, रसायन संश्लेषी या परपोषी होते हैं। 
  6. कुछ सदस्यों में वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थिरीकरण (Fixation of atmospheric nitrogen) की क्षमता पाई जाती है।

 

मोनेरा जगत का वर्गीकरण (Classification of monera kingdom): 

अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से मोनेरा जगत को चार भागों में विभाजित किया गया है-

 

जीवाणु (Bacteria): 

ये वास्तव में पौधे नहीं होते हैं। इनकी कोशिकाभित्ति का रायायनिक संगठन पादप कोशिका के रासायनिक संगठन से बिल्कुल भिन्न होता है। यद्यपि कुछ जीवाणु प्रकाश संशलेषण करने में सक्षम होते हैं लेकिन उनमें विद्यमान बैक्टीरियोक्लोरोफिल पौधों में उपस्थित क्लोरोफिल से बिल्कुल भिन्न होता है।

आकृति (shape): आकृति के आधार पर जीवाणु निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

1. शलाकवत् (Bacillus): इस प्रकार का जीवाणु छड़नुमा या बेलनाकार आकृति का होता है। जैसे बेसिलिस एन्थ्रासिस (Bacillus anthracis)

2 गोलाकार (Coccus): गोलाकार आकृति के जीवाणुओं को कोकस (Coccus) के नाम से जाना जाता है। ये सबसे छोटे जीवाणु होते हैं। कोशिकाओं के विन्यास के आधार पर ये कई प्रकार के होते हैं-

  • (i) माइक्रोकोकाई (Micrococci): एक कोशिका के रूप में, जैसे- माइक्रोकोकस (Micrococcus)
  • (ii) डिप्लोकोकाई (Diplococci): दो-दो कोशिकाओं के समूह में, जैसे- डिप्लोकोकस न्यूमोनी (Diplococcus pneumoniae)
  • (iii) स्ट्रेप्टोकोकाई (streptococci): अनेक कोशिकाओं के समूह में, जैसे- स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस (streptococcus Iactis)I
  • (iv) सारसिनी (sarcinae): 8,64 अथवा 128 के घनाकृतिक पैकेट में, जैसे सारसीना (Sarcina)

 

3 सर्पिलाकृतिक (spirallior Helical): इस प्रकार का जीवाणु Coiled अथवा spiral होता है। जैसे- स्पाइरिलम सारसि रुप्रेम (Spirillum ruprem)

4 कामा (Comma):  इस प्रकार का जीवाणु अंग्रेजी के चिह्न कौमा (,) के आकार के होते हैं। जैसे-विब्रियो कोमा (Vibrio comma) 


एक्टिनोमाइसिटीज (Actinomycetes)

इन्हें कवकसम जीवाणु भी कहते हैं। ये वे जीवाणु हैं जिनकी रचना कवक जाल के समान तन्तुवत या शाखित होती है। पहले इन्हें कवक माना जाता था, परन्तु प्रोकैरिओटिक कोशिकीय संगठन के कारण इन्हें अब जीवाणु माना जाता है। स्ट्रेप्टोमाइसीज इस समूह का एक महत्वपूर्ण वंश है। कवकसम जीवाणुओं की अनेक जातियों से विभिन्न प्रकार के प्रतिजैविक (Antibiotics) प्राप्त किए जाते हैं।

 

आर्कीबैक्टीरिया (Archaebacteria): 

ऐसा माना जाता है कि ये प्राचीनतम जीवधारियों के प्रतिनिधि हैं। इसलिए इनका नाम आर्की (Archae) अर्थात् बैक्टीरिया रखा गया है। इसलिए इन्हें प्राचीनतम जीवित जीवाश्म कहा जाता है। जिन परिस्थितियों में ये निवास करते हैं उनके आधार पर आक बैक्टीरिया को तीन समूहों में विभाजित किया गया है-मैथेनेजोन, हैलोफाइल्स तथा थर्मोएसिडोफाइल्स।

 

साइनोबैक्टीरिया (Cyanobacteria): 

साइनोबैक्टीरिया साधारणत: प्रकाश संश्लेषी (Photosynthetic) जीवधारी होते हैं। इन्हें पृथ्वी का सफलतम जीवधारियों का समूह माना जाता है। संरचना के आधार पर इनकी कोशिकाओं की मूलभूत संरचना शैवालों की अपेक्षा जीवाणुओं से अधिक समानता रखते हैं। साइनोबैक्टीरिया को नील-हरित शैवाल (Blue green algae) के नाम से भी जाना जाता है। ये कवक से लेकर साइकस तक अनेक जीवधारियों के साथ सहजीवी के रूप में रहते हैं। 


प्रोटिस्टा जगत एवं लक्षण

प्रोटिस्टा जगत में जल में रहने वाले एककोशिकीय (Unicellular), सुकेन्द्रकीय (Eukaryotic) सूक्ष्मजीव आते हैं। ये तरह-तरह के जीवन वर्गों को प्रदर्शित करते हैं। प्रोटिस्ट्स में विविध पोषी स्लाइम, मोल्स तथा प्रोटोजोआ होते हैं एवं प्रकाश संश्लेषी एककोशिकीय शैवाल होते हैं।

 

प्रोटिस्टा की संरचना (Structure of protista): 

प्रोटिस्ट्स में कोशिकाएँ एक कला (Membrane) द्वारा घिरी होती है। प्रकाश संश्लेषी प्रोटिस्टा कोशिका में हरित लवक (Chlorophyll) होते हैं। प्रत्येक कोशिका में माइटोकोन्ड्रिया, गॉल्जीकाय, अन्तः प्रदव्यी जालक, केन्द्रक, गुणसूत्र इत्यादि कलाओं से घिरे हुए अंग पाए जाते हैं।

 

प्रोटिस्टा में गमन (Locomotion in Protista): 

(i) कशाभिका द्वारा 

(ii) रोमाभि द्वारा 

(iii) कुटपादों या पादाभों द्वारा

 

प्रोटिस्टा में जनन (Reproduction in protista): 

प्रोटिस्टा में जनन मुख्यतः दो प्रकार से होते हैं- 

अलैंगिक जनन तथा 

लैंगिक जनन 

अलैंगिक जनन द्विविभाजन और पुटी निर्माण द्वारा होता है, जबकि लैंगिक प्रजनन में नर और मादा युग्मक संयोजन करके जाइगोट (zygote) बनाते हैं। जाइगोट में अर्द्धसूत्री विभाजन होता है और अन्त में अगुणित जीव विकसित हो जाते हैं।

 

क्राइसोफाइट Chrysophyte: 

  1. ये अत्यंत सूक्ष्म होते हैं . इसके अंतर्गत डायटम और और सुनहरे शैवाल आते हैं | 
  2. यह स्वच्छ जल और लवणीय या समुद्र जल , दोनों पर्यावरण में पाए जाते हैं
  3. ये जल धारा के साथ बहते रहते हैं | 
  4. इसके अंतर्गत आने वाले डायटम में कोशिकभित्ति साबुन की तरह दो आच्छादित कवच बनती है | 
  5. इन भित्तियों में सिलिका होती है जिसके कारण ये प्रतिकूलपरिस्थितियोंमें भी नष्ट होने से बच जाते हैं | 
  6. इसी कारण ये डायटम मृत होने के बाद भी अपने कोशिका भित्ति के अवशेषों की अत्यधिक संख्या को अपने पाए जाने वाले स्थान पर छोड़ जाते हैं | 
  7. लाखो करोडो वर्षों में जमा हुए इन अवशेषों को डायटमी मृदा कहते हैं | ये मृदा कण के जैसे होते हैं | 
  8. इसका उपयोग पॉलिश करने, तेलों और सिरप के निस्यन्दन में होता है | 
  9. ये समुद्री उत्पाद हैं , जो हमारे आर्थिक महत्त्व के होते हैं |

 

डायनोफ्लैजिलेट Dinoflagellate: 

  • ये जीव मुख्य रूप से समुद्री जीव होते हैं .
  • इनमे क्लोरोफिल पाया जाता है ये प्रकाश संश्लेषण करते हैं ये प्रकाश संश्लेषी जीव होते हैं.
  • इन मे कई तरह के वर्णक पाए जाते हैं.
  • इनमे उपस्थित इन्ही वर्णक के आधार पर ये पीले, हरे, नीले, भूरे और लाल दिखाई देते हैं.
  • इनकी कोशिकभित्ति की बाहरी सतह पर सल्लुलोज की कड़ी पट्टिकाएं होती हैं.
  • ज्यादातर डायनोफ्लैजिलेट में दो कशाभ होते हैं.
  • जिसमे एक कशाभ लम्बवत तथा दूसरा अनुप्रस्थ रूप से कोशिकभित्ति की पट्टिकाओं के बीच की खांच में होता है.
  • अक्सर लाल डायनोफ्लैजिलेट के द्वारा बड़ी संख्या में विस्फोट होता रहता है | और लाल तरंग छोड़ते रहते हैं जिससे इनके लाल तरंगो के कारण समुद्र का पानी लाल दिखने लगता है इसी के कारण समुद्रीय मछली तथा अन्य समुद्री जीव मर जाते हैं.

 

युग्लीनाइड: 

  • इनमे से अधिकांश जीव स्वच्छ जल में पाए जाने वाले जीवधारी होते हैं.
  • ये शांत जल में पाए जाते हैं. 
  • इसमें कोशिकभित्ति की जगह एक प्रोटीन युक्त पदार्थ की एक पतली परत होती है जिसे पेलिकिल कहते हैं . जो इसकी संरचना को लचीला बनाती है . 
  • ये स्वपोषी और परपोषी दोनों की तरह व्यवहार करते हैं.
  • सूर्य की प्रकाश की उपस्थिति में ये प्रकाशसंश्लेषी स्वपोषी होते है. और सूर्य के प्रकाश की अनुपस्थिति में ये अपने भोजन के लिए दुसरे जीवो पर निर्भर रह कर परपोषी जैसा व्यवहार करते हैं  
  • इनमे दो कशाभ पाए जाते हैं. जिसमे एक छोटा तथा दूसरा लम्बा होता है | जैसे युग्लिना |

 

अवपंक कवक: 

  • ये एक मृतपोषी प्रॉटिस्टा होते हैं . ये मृतजीवो और सड़े गले पौधों पत्तियों और जीवो से अपना भोजन प्राप्त करते हैं.  
  • यह अपने अनुकूल परिस्थितियों में रहने पर ये समूह प्लाजमोडियम बनाते हैं.और प्रतिकूल परिस्थितियों में बिखर जाते है और बिखर कर सिरों पर बीजाणुयुक्त फलनकाय बनाते हैं . 
  • इन बीजाणुओं का परिक्षेपण वायु के द्वारा होता है. 


प्रोटोजोआ Protozoa: 

सभी प्रकार के प्रोटोजोआ परपोषी होते हैं . जो परजीवी के रूप में रहते हैं. 

इनका सम्बन्ध प्राणियों से काफी पुराना है . 

प्रोटोजोआ का वर्गीकरण : 

प्रोटोजोआ को भी चार भागो में बाँटा गया है | 

1)अमीबा प्रोटोजोआ

2)कशाभी प्रोटोजोआ

3)पक्षाभी प्रोटोजोआ

4)स्पोरोजोआ |

 

1)अमीबा प्रोटोजोआ : 

  • यह जीवधारी स्वच्छ जल में , समुद्री जल में तथा नम मृदा में पाए जाते हैं. 
  • समुद्रीय जल में पाए जाने वाले अमीबा की सतह पर सिलिका के कवच होते हैं . 
  • ये अपना भोजन कूटपादों की सहायता से करते हैं | जैसे- एंटअमीबी परजीवी.

 

2)कशाभी प्रोटोजोआ: 

  • इस समूह के सभी सदस्य परजीवी होते हैं. 
  • इनके शरीर पर कशाभ पाया जाता है.
  • परजीवी कशाभ प्रोटोजोआ बीमारी का कारण होता है जैसे ट्रिपैनोसोमा.

 

3)पक्षाभी प्रोटोजोआ : 

  • ये जलीय जीव होते हैं तथा सक्रीय गति करने वाले जीवधारी होते हैं. 
  • इसमें एक ग्रसिका गुहा होती है जो कोशिका के सतह के बाहर की तरफ खुलती है. 
  • इनके शरीर पर हजारो की संख्या में पक्षाभ पाए जाते हैं. 
  • इन पक्षाभो की गति के कारण ही जल में से पूरा भोजन गलेट की तरफ भेज दिया जाता है | जैसे- पैरामीशियम .

 

4)स्पोरोजोआ Sporozoa: 

  • इस समूह में वे अलग अलग प्रकार के जीवधारी आते हैं जिनके जीवन चक्र में संक्रमण करने योग्य बीजाणु जैसी अवस्था पायी जाती है. 
  • इसमें से सबसे खतरनाक प्लाजमोडियम प्रजाति है जो कि एक मलेरिया परजीवी है. 
  • जिसके कारण मनुष्य में रोग फैलता है | जैसे प्लाजमोडियम मलेरिया परजीवी. 


Q1) प्रॉटिस्टा के अध्ययन को क्या कहा जाता है ? 

Ans: प्रॉटिस्टा के अध्ययन को प्रोटीस्टोलोजी कहा जाता है | 

Q2) प्रोटोजोआ को कितने समूह में बाँटा गया है ? 

Ans: प्रोटोजोआ को भी चार भागो में बाँटा गया है | 

1)अमीबा प्रोटोजोआ, 2)कशाभी प्रोटोजोआ, 3)पक्षाभी प्रोटोजोआ, 4)स्पोरोजोआ | 

Q3) प्रॉटिस्टा की कोशिकभित्ति किसकी बनी होती है ? 

Ans: प्रॉटिस्टा कोशिकाभित्ति सेल्युलोज, प्रोटीन स्ट्रिप्स (पेलिकल) सिलिका से बनी होती है। 

Q4) प्रॉटिस्टा में कौन से जीव आते हैं ? 

Ans: प्रॉटिस्टा में विविध पोषी स्लाइम, मोल्स तथा प्रोटोजोआ होते हैं एवं प्रकाश संश्लेषी एककोशिकीय शैवाल होते हैं। 

Q5) समुद्र का जल लाल क्यों दिखता है ? 

Ans: अक्सर लाल डायनोफ्लैजिलेट के द्वारा बड़ी संख्या में विस्फोट होता है जिससे इनके लाल तरंगो के कारण समुद्र का जल लाल दिखने लगता है |

 

कवक जगत एवं लक्षण  

कवक जगत पौधो का एक बड़ा समूह है, जिसके अंतर्गत ऐसे पौधे शमिल किये गये है जो सड़े गले पदार्थो एवं कार्बनिक चीजों से अपना भोजन प्राप्त करते है| इन्हें अपमार्जक भी कहा जाता है, क्योकि ये कचरे में पनपते है एवं उसे साफ़ कर देते है| 

समान्य तौर से कवक जगत के जीवो में अन्य पौधो की भांति पर्णहरित तत्व नहीं पाया जाता, इसलिए ये प्रकाश द्वारा अपना भोजन नहीं बना सकते| ये परजीवी एवं मृतजीवी होते है एवं दूसरो पर निर्भर रहते है| इनमे संवहन उत्तक भी नहीं पाया जाता, इनमे तना, पत्तिया भी नहीं पाई जाती| कवक जगत का अध्ययन करने की प्रक्रिया को माइकोलोजी कहा जाता है| 

कवक द्वारा इकठा किया हुआ भोज्य पदार्थ ग्लाइकोजेन के रूप में संचित रहता है व् कवको की कोशिका भित्ति काईटिन नामक पदार्थ से निर्मित होती है| कवको की संख्या पृथ्वी पर बहुत ज्यादा मानी गई है, ये उन सभी स्थानों पर विकसित हो जाते है जहाँ कार्बनिक पदार्थ उपस्थित हो, चाहे जीवित रूप में अथवा मृत रूप में| गोबर पर पैदा होने वाले कवकीय पौधे को कोप्रोफिलीस कवक कहा जाता है|

 

पोषण के आधार पर कवक जगत को ३ भागों में विभाजित किया गया है, जो इस प्रकार है:-

 

सहजीवी: 

इसके अंतर्गत ऐसे प्रकार के कवक आते है जो अपने साथ विकसित होने वाले पौधे के लिए सहायक होते है एवं ये एक दूसरे को विकसित एवं भरण पोषण के लिए मदद करते है एवं लाभ पहुचाते है| लाइकेन इसका अच्छा उदहारण है|

 

परजीवी: 

इन कवको को हानिकारक माना जाता है, क्योकि ये सदा दूसरे जीवो एवं पौधो पर आश्रित होते है, एवं अपना भोजन प्राप्त करने के लिए ये दूसरो को हानि भी पंहुचा सकते है, जैसे, आस्टिलागो एवं पाक्सीनिया

 

मृतोपजीवी: 

इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले कवक अपना भोजन हमेशा मृत कार्बनिक पदार्थो से ग्रहण करते है एवं उनपर ही आश्रित होते है| उदहारण के लिए मोर्चेला, राइजोपस आदि सम्मिलित है|

 

कवक जगत के विभिन्न वर्ग: 

फाईकोमाईसिटिज: 

इस प्रकार के कवक गीले एवं आद्र स्थानों पर पाए जाते है| जैसे- सदी हुई लकड़ी, अथवा सीलन युक्त स्थान आदि| इनमे अलेंगिक जनन प्रक्रिया द्वारा जनन होता है, एवं युग्मको के मिलने से युग्माणु निर्मित होते है|

 

एस्कोमाईसिटिज (Ascomycetes Fungi) 

इस प्रकार के कवक एक कोशिकी या बहुकोश्किय दोनों ही हो सकते है| इन्हें थैली कवक भी कहा जाता है| न्यूरोसपेरा इसका अच्छा उदहारण है, जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के रासायनिक प्रयोगों के अंतर्गत किया जाता है| इनमे भी अलेंगिक जनन पाया जाता है|

 

बेसीडियोमाईसिटिज (Basidiomycete Fungi) 

ये कवक विभिन्न प्रकार के पौधो पर परजीवियों के रूप में विकसित होते है, इनमे अलेंगिक बीजाणु नहीं पाए जाते| इनके साधरण उदहारण मशरूम, पफबॉल आदि है| इनमे द्विकेंद्र्क सरंचना का निर्माण होता है, जिससे आगे चलकर बेसिडियम का निर्माण होता है|

 

ड्यूटीरोमासिटिज (Deuteromycota Fungi) 

इस प्रजाति को अपूर्ण कवक की सूचि में रखा गया है, क्योकि इसकी लेंगिक प्रावस्था के आलावा और कुछ ज्ञात नहीं हो पाया है|

 

लाइकेन (Lichen) क्या होता है ? 

लाइकेन को कवक के सहजीवी के रूप में जाना जाता है, क्योकि यह कवक के विकसित होने में सहायता करता है|

 

विषाणु क्या होतें हैं टिप्पणी लिखिए ? 

वाइरस शब्द की उत्पत्ति Virum शब्द से हुयी है।  में लोफलर एवं फ्रोस्च ने जानवरों में विषाणु जनित रोगों के संबंध में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की तब इन्हें विषाणु कहा गया। विषाणु, जीवित कोशिकाओं में परजीवी के रुप में पाये जाते हैं तथा अनेक प्रकार की बीमारियां फैलाते हैं।

 

विषाणुओं के लक्षण 

ये केवल जीवित कोशिका में ही वृद्धि एवं जनन कर सकते हैं। ये अपने चारों ओर के वातावरण के प्रति संवेदनशील होते हैं। पोषक कोशिका के बाहर इनमें प्रजनन की क्षमता नहीं पायी जाती है। पौधों में इनका विस्तार, फ्लोएम के माध्यम से एवं जंतुओं के शरीर में, रक्त के माध्यम से होता है। एक विषाणु केवल एक निश्चित जाति को ही संक्रमित करता है।

 

विषाणुओं की लाभदायक क्रियाएं 

इनमें सजीव एवं निर्जीव, दोनों के गुण पाये जाने के कारण इनका उपयोग जैव विकास के अध्ययन में किया जाता है। 

ये नीले-हरे शैवालों की सफाई करने में सहायक होते हैं। 

इनकी सहायता से पानी को खराब होने से बचाया जाता है। जीवाणुभोजी पानी को सड़ने से रोकता है।

 

विषाणुओं से हानि 

विषाणु पौधों, जानवरों एवं मनुष्यों में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते है।

 

विरोइड्स क्या होते हैं वर्णन कीजिये ? 

  • 1971 में, एक प्लांट पैथोलॉजिस्ट नाम दिया  थिओडोर ओटो डायनर सबसे पहले विरोइड्स की खोज की। जब वह एक कृषि अनुसंधान सेवा में काम कर रहे थे तब उन्हें एक कोशिकीय कण मिला और उन्होंने इस कण का नाम वाइरायड रखा, जिसका अर्थ है "वायरस जैसा।" वर्तमान में विरॉयड की 33 प्रजातियों की पहचान की जा चुकी है। 
  • विरोइड्स को सबसे छोटे संक्रामक रोगजनकों के रूप में जाना जाता है जो पूरी तरह से गोलाकार, एकल-फंसे स्व-प्रतिकृति आरएनए के एक छोटे से स्ट्रैंड से बने होते हैं जिनमें कोई प्रोटीन कोटिंग नहीं होती है। 
  • हालांकि, वाइरोइड्स न्यूक्लिक एसिड से बने होते हैं जो किसी प्रोटीन के लिए कोड नहीं करते हैं। 
  • उनकी आनुवंशिक जानकारी की सुरक्षा के लिए उनके पास कोई प्रोटीन कोट नहीं है। 
  • विरोइड्स विभिन्न पौधों की बीमारियों के कारण जाने जाते हैं। वे मेजबान के प्रोटीन के साथ फ्लोएम संवहनी चैनलों और प्लास्मोडेस्मेटा से जुड़ते हैं और फिर मेजबान के सेल (प्लांट) के भीतर चले जाते हैं। 
  • विरोइड रोग के लक्षणों में क्लोरोसिस, स्टंटिंग, शिराओं का मलिनकिरण, एपिनेस्टी, शिराओं की सफाई, स्थानीयकृत परिगलित धब्बे, पत्तियों का धब्बेदार होना और परपोषी की मृत्यु शामिल हैं। 
  • सबसे पहले वाइरायड आलू कंद तकला रोग में पाया गया, जिससे धीमी गति से अंकुरण होता है और आलू के पौधों में विभिन्न विकृतियां होती हैं। 
  • विरोइड अपने प्रतिकृति तंत्र में आरएनए पोलीमरेज़ II एंजाइम का उपयोग करता है। होस्ट सेल में, यह एंजाइम डीएनए से मैसेंजर आरएनए के संश्लेषण में मदद करता है, जो इसके बजाय एक टेम्पलेट के रूप में वायरायड के आरएनए का उपयोग करके नए आरएनए के "रोलिंग सर्कल" संश्लेषण को उत्प्रेरित करता है। 
  • कभी-कभी उनमें उत्प्रेरक गतिविधि होती है जो उन्हें बड़े प्रतिकृति मध्यवर्ती से इकाई-आकार के जीनोम के स्व-दरार और बंधाव में मदद करती है। 
  • वाइरोइड्स के दो समूह हैं जैसे अवसुनवाइरोइड्स (उदाहरण के लिए, एवोकैडो सन-ब्लॉच विरोइड) और पोस्पिवाइरोइड्स (उदाहरण के लिए, आलू तकला कंद viroid) 
  • Avsunviroids की प्रतिकृति प्रक्रिया क्लोरोप्लास्ट के भीतर पूरी की जाती है जबकि pospiviroidae नाभिक और नाभिक के भीतर दोहराई जाती है। 


  • RSI इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी viroid की संरचना का निरीक्षण करने के लिए प्रयोग किया जाता है। 
  • वे छोटे, गोलाकार, एकल-फंसे हुए आरएनए अणु होते हैं 
  • उनके पास 50 एनएम लंबा आरएनए है। 
  • वे अत्यधिक पूरक वृत्ताकार ssRNA के एक छोटे खिंचाव (कुछ सौ न्यूक्लियोबेस) से बने होते हैं जिनमें प्रोटीन कोट की कमी होती है।

 

विरोइड्स की उत्पत्ति 

विरोइड्स की उत्पत्ति के संबंध में चार संभावनाएँ हैं;

 

  1. वाइरोइड्स को सब-वायरल एजेंट माना जाता है क्योंकि वे वायरस से उत्पन्न होते हैं जिसमें प्रोटीन कोट खो जाता है। 
  2. कम आणविक भार RNAs TMV से संक्रमित पत्तियों में, ब्रॉड बीन मोटल वायरस से संक्रमित पत्तियों में और चरण से संक्रमित Escherichia coli में पाए जाते हैं। अंतत: इनसे विरोइड्स उत्पन्न हो सकते हैं। 
  3. जब वे रोगजनक बन जाते हैं और बीमारियों को प्रेरित करते हैं, तो वाइरोइड स्वयं-प्रतिकृति आरएनए से उत्पन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए आलू तकला कंद विरोइड। 
  4. यह अनुमान लगाया गया है कि वायरायड विनियामक आरएनए से उत्पन्न होते हैं जो उत्परिवर्तन द्वारा असामान्य हो गए हैं।

 

विरोइड्स की विशेषताएं 

  • उन्हें सबसे छोटे संक्रामक एजेंट के रूप में जाना जाता है जो मुख्य रूप से पौधों को संक्रमित करते हैं। 
  • इनमें केवल आरएनए होता है। 
  • उनमें कम आणविक भार और एक अद्वितीय संरचना वाला एक न्यूक्लिक एसिड होता है। 
  • वे परपोषी की कोशिका के भीतर गुणा करते हैं और परिणामस्वरूप, यह परपोषी की मृत्यु का कारण बनता है। 
  • उनके दो परिवार हैं जैसे कि पोस्पिविरोइडे- परमाणु वाइरोइड्स और अवसुनवीरोइडे- क्लोरोप्लास्टिक वाइरोइड्स। 
  •  वे प्लास्मोडेस्माटा द्वारा कोशिका से कोशिका में जाते हैं, और फ्लोएम के माध्यम से लंबी दूरी तय करते हैं।

 

डाइएटम (diatoms) की कोशिका भित्ति पर टिप्पणी लिखिए ? 

डाइएटम (diatoms) की कोशिका भित्ति साबुनदानी की तरह इसी के अनुरूप दो अतिछादित कवच बनाती है। इसमें सिलिका पायी जाती है। जिसके कारण कोशिका भित्ति नष्ट नहीं होती है। मृत डाइएटम अपने वास स्थान में कोशिका भित्ति के अवशेष बहुत बड़ी संख्या में छोड़ देते हैं। करोड़ों वर्षों में जमा हुए इस अवशेष को डाइएटमी मृदा कहते हैं।

 

 वर्गीकरण की क्या आवश्यकता है ?  जीवों को वर्गीकृत क्यों करते हैं ? 

उत्तर- (i) अध्ययन की सुविधा अर्थात् अध्ययन को सरल बनाना । 

(ii) विभिन्न जीवों के मौलिक अथवा प्राकृतिक सम्बन्धों का स्पष्ट बोध कराना। 

(iii) किसी एक व्यक्ति द्वारा पृथ्वी के सभी जीवधारियों का अध्ययन सम्भव नहीं है, अतः जीवों को वर्गीकृत कर तथा प्रतिनिधि जीवों की जानकारी से जैव विविधता का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है। 

(iv) वर्गीकरण मनुष्य की सहज प्रकृति व आवश्यकता है। 

(v) जीवों की सार्वभौमिक पहचान सुनिश्चित करने हेतु ।

 

वर्गीकरण की प्रमुख पद्धतियों के नाम लिखिए। 

उत्तर- वर्गीकरण के प्रकार या उसकी प्रमुख पद्धतियाँ निम्न हैं- (ii) प्राकृतिक वर्गीकरण पद्धति, (iii) जातिवृत्तीय वर्गीकरण पद्धति

 

"न्यू सिस्टेमैटिक्स" से आप क्या समझते हैं ? 

उत्तर- जूलियन हक्सले (1940) ने वर्गिकी के एक नये रूप को न्यू सिस्टेमैटिक्स (New Systematics) नाम दिया। यह शुद्ध वर्गिकी या क्लासिकल टैक्सोनॉमी से अनेक सन्दर्भों में भिन्न है। न्यू सिस्टेमैटिक्स को प्रायोगिक वर्गिकी (Experimental taxonomy) भी कहा गया है। यही जैव वर्गिकी भी है। 

इसमें जैव-विविधता के सम्बन्ध में सूचनाएँ सभी स्रोतों; जैसे आकारिकी, शारीरिकी, कार्यिकी, जैव-रसायन, आण्विक संगठन, व्यवहार, जातिवृत्त, आनुवंशिक लक्षणों आदि से एकत्र की जाती हैं अर्थात् इसमें अधिक प्राकृतिक, जातिवृत्तीय व विश्वसनीय तरीकों का प्रयोग वर्गीकरण में किया जाता है। संख्यात्मक वर्गिकी (numerical taxonomy) भी इसी का अंग है। अत: इसमें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आँकड़ों का विश्लेषण करके सटीक परिणाम ज्ञात किये जाते हैं। मॉफटैक्सोनॉमी, साइटोटैक्सोनॉमी, कीमोटैक्सोनॉमी, क्लेडिस्टिक्स इसी के भाग हैं।

 

दो जगत वर्गीकरण की कमियों का उल्लेख कीजिए। 

उत्तर- द्विजगत वर्गीकरण की प्रमुख कमियाँ निम्नलिखित हैं- 

(i) यूकैरियोटिक पादपों के साथ प्रोकैरियोटिक सायनोबैक्टीरिया जीवाणु, माइकोप्लाज्मा आदि को वर्गीकृत करना उचित नहीं है। 

(ii) एककोशिकीय जीवों जैसे अमीबा, पैरामीशियम को जन्तु जगत में वर्गीकृत करना तर्कसंगत नहीं है। 

(iii) कवकों का पादप जगत में समायोजन उचित नहीं लगता। सभी कवक क्लोरोफिल रहित होते हैं व इनकी कोशिका भित्ति भी काइटिन की बनी होती है। 

(iv) गतिशील, (कशाभिका युक्त) क्लेमाइडोमोनास जैसे एककोशिकीय जीवों को अचल पादपों के साथ वर्गीकृत करना तर्कसंगत नहीं है। 

प्रश्न 1. ह्विटेकर के पाँच जगत वर्गीकरण की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए। 

पाँच जगत वर्गीकरण क्या है ? प्रत्येक जगत के दो लक्षण लिखिए। 

 

वर्गीकरण पद्धतियों की कमियों में सुधार के उद्देश्य से सन् 1969 में आर. एच. ह्विटेकर (R.H. Whittaker) द्वारा पाँच जगत वर्गीकरण प्रस्तावित किया गया। इस वर्गीकरण के आधार थे-

 

कोशिका संरचना, जीव शरीर संरचना (जटिलता), पोषण विधि, पारिस्थितिक भूमिका व जातिवृत्तीय सम्बन्ध इन आधारों पर ब्रिटेकर ने सभी जीवधारियों को निम्न पाँच जगतों में विभाजित किया-

1. मोनेरा जगत (Kingdom Monera): इस जगत में प्रोकैरियोटिक जीव अर्थात् जीवाणु (Bacteria), सायनोबैक्टीरिया और आर्कीबैक्टीरिया शामिल हैं.

2. प्रोटिस्टा जगत (Kingdom Protista): इस जगत में एककोशिकीय यूकैरियोटिक जीव शामिल हैं . पादप व जंतु के बीच स्थित युग्लीना इसी जगत में शामिल है .

3. कवक जगत (Kingdom Fungi) : इसमें परजीवी तथा मृत पदार्थों पर भोजन के लिए निर्भर जीव शामिल है . इनकी कोशिका भित्ति काईटिन की बनी होती है .

4. पादप जगत (Kingdom Plantae): इस जगत में शैवाल व बहुकोशिकीय हरे पौधे शामिल हैं .

5. जंतु जगत (Kingdom Animal): इसमें सभी बहुकोशिकीय जंतु शामिल होते हैं . इसे मेटाजोआभी कहा जाता है .

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