वर्गीकरण का इतिहास और पद्धतियाँ
वर्गीकरण का इतिहास
➽ जीव विज्ञान के इतिहास से पता चलता है कि मानव के विकास से पूर्व ही पादप एवं जन्तु पृथ्वी पर उपस्थित थे। जब मानव ने अपनी विभिन्न मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पादपों एवं जन्तुओं की उपयोगिता को महसूस किया तो उन्होंने पादपों और जन्तुओं को नाम देना प्रारम्भ किया जिससे उनको पहचाना जा सके तथा उनके लक्षणों का अध्ययन कर उन्हें वर्गीकृत किया। हमारे वैदिक साहित्य में 740 पादपों और 250 जन्तुओं का वर्णन किया गया है।
➽ चिकित्सा विज्ञान के प्राचीन अध्ययन, आयुर्वेद में जीवों के वर्गीकरण का उल्लेख है। इस विज्ञान के अन्तर्गत चरक संहिता (Charak Samhita) और सुश्रुत संहिता (Susruta Samhita) का विशेष महत्त्व है। चरक (Charak) जिन्हें आयुर्वेद का (Father of Ayurveda) कहा जाता है, ने अपनी पुस्तक 'चरक संहिता में लगभग 200 प्रकार के 340 औषधीय पौधों का वर्णन किया। सुश्रुत संहिता में सभी पदार्थों को 'स्थावर' (अचल), जैसे पादप एवं जंगम (स) किया गया है। ईसा के जन्म से बहुत पहले महर्षि पाराशर ने वृक्षायुर्वेद (Vrikshayurveda) नामक महाग्रन्थ का संकलन किया। इस ग्रन्थ में पादपों का वर्गीकरण तुलनात्मक आकृति के आधार पर किया गया है। वर्गीकरण की यह पद्धति यूरोप में 18वीं शताब्दी से पूर्व प्रतिपादित वर्गीकरण पद्धतियों से अधिक उन्नत थी। यही नहीं, इसमें अनेक कुलों (Families) का स्पष्ट विभेदन एवं वर्तन किया गया है। इसमें पुष्पी पादपों को एकबीजपत्री एवं द्विबीजपत्री में विभाजित किया गया है।
➽ जन्तुओं के प्रथम वर्गीकरण का श्रेय ग्रीक के दार्शनिक अरस्तू (Aristotle, 384-322 B.C.) को जाता है, जिन्हें' जन्तु विज्ञान का जनक' (Father of Zoology) कहा जाता है। अरस्तू ने जन्तुओं का वर्गीकरण रुधिर (Blood) के रंग के आधार पर अपनी पुस्तक "हिस्टोरिया एनिमेलियम (Historia Animalium) में किया। उन्होंने जन्तु जगत को दो महासमूहों में वर्गीकृत किया-
(A) महासमूह 1. इनाइमा (Enaima ) – इसके अन्तर्गत लाल रुधिर युक्त कशेरुक जन्तुओं को रखा गया है।
(B) महासमूह 2. एनाइमा ( Anaima ) – इसके अन्तर्गत अकशेरुक जन्तुओं को रखा गया है जिनका रक्त लाल नहीं होता है।
➽ थियोफ्रेस्टस (Theophrastus, 370-285 B.C.), जिन्हें ' वनस्पति विज्ञान का जनक' (Father of Botany) कहा जाता है, ने पादप स्वभाव के आधार पर समस्त पादपों को चार समूहों में विभाजित किया-
1. वृक्ष (Tree),
2. क्षुप (Shrubs),
3. उपक्षुप (Under Shrubs),
4. शाक (Herbs) |
➽ थियोफ्रेस्टस ने वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अनेक पुस्तकें लिखीं। 'पौधों की खोज' (Enquiry into plants) तथा ' पौधों की उत्पत्ति' (Causes of plants) उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उनकी एक अन्य प्रसिद्ध पुस्तक हिस्टोरिया प्लॉण्टेरम (Historia Plantarum) 480 प्रकार के पादपों का विस्तृत वर्णन एवं वर्गीकरण उपलब्ध है।
➽ अरस्तू के वर्गीकरण को क्रमबद्ध बनाने का सही प्रयास अंग्रेज वैज्ञानिक जॉन रे (John Ray, 1627-1705) ने किया । जॉन रे ने तीन खण्डों में अपनी पुस्तक 'हिस्टोरिया जेनेरे लिए ऑण्टेि ( Generalis Plantarum) की, जिसमें लगभग 18,000 से अधिक प्रकार के पादपों एवं जन्तुओं का वर्णन किया गया है। उन्होंने आकारिकी दृष्टि से समान जीवों के लिए जाति (Species) शब्द का प्रयोग किया। परन्तु वर्गीकरण के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य स्वीडन के वनस्पतिज कार्ल वॉन लिने (Karl Von Linne) जो बाद में कैरोलस लिनियस (Carolus Linnaeus. 1707-1778) के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने किया। उन्होंने 1758 में सिस्टेमा नेचुरी (Systema Naturae) नामक पुस्तक की रचना की। उन्होंने इसमें सभी जन्तुओं एवं पादपों का नामकरण द्विनाम पद्धति (Binomial Nomenclature) के अनुसार किया। इस पुस्तक को वर्गीकरण का शब्दकोष (Dictionary of classification) कहा जाता है। लिनियस की एक अन्य पूर्व में प्रकाशित महत्त्वपूर्ण पुस्तक स्पीशीज प्लाण्टेग्म (Species Plantarum) में लगभग 7.3000 पादपों का वर्गीकरण लैंगिक लक्षणों के आधार पर किया गया है। लिनियस को "आधुनिक वर्गिकी का जनक" (Father of Modern Taxonomy) कहा जाता है।
➽ अरस्तू द्वारा दिये गये जीवों के वर्गीकरण से लेकर लिनियस के समय तक जो भी वर्गीकरण दिये गये उन्हें कृत्रिम (Artificial) कहा गया क्योंकि ये वर्गीकरण सीमित लक्षणों को ध्यान में रखकर ही दिये गये थे, परिणामस्वरूप असंख्य जीवों को कुछ ही समूहों में रख दिया गया। तत्पश्चात् जीवों के वर्गीकरण में सभी महत्त्वपूर्ण लक्षणों का प्रयोग किया जाने लगा। ये वर्गीकरण प्राकृतिक बन्धुता (Natural affinity) पर आधारित थे। अतः इन वर्गीकरणों को प्राकृतिक (Natural) कहा गया। डार्विन (Darwin, 1859) के विकासवाद (Theory of evolution) के प्रकाशित होने के पश्चात् जो वर्गीकरण दिये गये उनमें जीवों के परस्पर आनुवंशिक सम्बन्धों अर्थात् जातिवृत्त (Phylogeny) को ध्यान में रखा गया। अतः इन वर्गीकरण जातिवृत्तीय (Phylogenetical) कहा गया।
➽ आधुनिक वर्गीकरण के अन्तर्गत विभिन्न प्रायोगिक तकनीकों (Experimental techniques) का प्रयोग किया जाता है। सन् 1950 के पश्चात् वर्गिकी में तीन प्रमुख क्षेत्रों - (1) रसायनवर्गिकी (Chemotaxonomy), (2) संख्यात्मक वर्गिकी (Numerical taxonomy) तथा (3) कोशिकावर्गिकी (Cytotaxonomy) का विकास हुआ है।
वर्गीकरण की विभिन्न पद्धतियाँ DIFFERENT SYSTEMS OF CLASSIFICATION]
विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा दिये गये वर्गीकरणों को निम्न तीन पद्धतियों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) कृत्रिम पद्धतियाँ (Artificial Systems)
➽ इन पद्धतियों में जीवों का वर्गीकरण केवल एक या कुछ लक्षणों के आधार पर ही किया गया है। इनमें सुविधा की दृष्टि से जीवों को अलग-अलग समूहों में रख दिया जाता है। अतः इसमें जीवों के जातिवृत्तीय एवं आनुवंशिक लक्षणों के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। अरस्तू (Aristotle) ने सबसे पहले जीवों को उनके आवास के आधार पर स्थलीय (Terrestrial), वायवीय (Aerial) एवं जलीय (Aquatic) समूहों में वर्गीकृत किया था। इसी प्रकार थियोफ्रेस्टस (Theophrastus) ने पादप स्वभाव के आधार पर पादपों को वृक्ष, क्षुप, उपक्षुप एवं शाक में विभाजित किया था। मध्य युग में पादप वर्गीकरण उनके उपयोग पर आधारित था जिन्हें औषधीय पादप, खाने योग्य पादप, विषयुक्त पादप, लाभदायक पादप एवं हानिकारक पादप में वर्गीकृत किया गया था।
➽ ऐसे वर्गीकरणों की तुलना शब्दकोष में वर्णमाला के अक्षरों की व्यवस्था से की जा सकती है जहाँ दो शब्दों में एक ही अक्षर से प्रारम्भ होने के अतिरिक्त कोई अन्य सार्थक समानता नहीं पाई जाती है। कुछ वर्गिकीविज्ञों ने पादपों को अक्षरक्रम में वर्गीकृत भी किया। स्पष्ट है कि इन सभी वर्गीकरण विधियों में जीवों की उत्पत्ति और विकास के दृष्टिकोण से जीवों के आपसी सम्बन्धों को यथोचित महत्त्व नहीं दिया गया।
➽ कैरोलस लिनियस (Carolus Linnaeus, 1707-1778) ने सबसे उत्तम कृत्रिम पद्धति का प्रतिपादन किया। इन्होंने पुंकेसरों (Stamens) के आधार पर पादपों को 24 वर्गों (Classes) में विभाजित किया। इन 24 वर्गों में से 23 वर्गों में पुष्पी पादपों (Flowering plants) तथा 24वें वर्ग में अपुष्पी पादपों को विभाजित किया । इस पद्धति में वर्गों का निर्धारण पुंकेसरों की संख्या, लम्बाई एवं सहलग्नता (Linkage) पर आधारित है, अत: इसे लैंगिक पद्धति (Sexual system) भी कहा जाता है । लिनियस की पद्धति आधार पर पादपों का पहचाना जाना बड़ा सरल था। यह पद्धति लगभग एक शताब्दी तक प्रचलित रही। लिनियस ने पादपों को निम्न प्रकार विभाजित किया-
➽ अरस्तू के समय से लेकर लिनियस के समय तक प्रस्तुत सभी वर्गीकरण कृत्रिम माने जाते हैं। एण्ड्रिया सीजलपिनो (Andrea Caesalpino, 1519-1603, A. D. ) गैस्पार्ड बॉहिन (Gaspard Bauhin, 1560-1624A.D.) जॉन रे (John Ray, 1628-1705 A.D.) के वर्गीकरण भी कृत्रिम थे।
(2) वर्गीकरण की प्राकृतिक पद्धतियाँ (Natural Systems)
➽ इन पद्धतियों में जीवों के सभी महत्त्वपूर्ण लक्षणों को उनके वर्गीकरण में प्रयोग किया गया है। ये पद्धतियाँ जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों पर आधारित हैं, परन्तु ये जातिवृत्तीय नहीं हैं। पादपों के वर्गीकरण में उनके स्वभाव, संरचना, मूल, तना, पत्ती तथा को महत्त्व दिया है। इस पद्धति में डी. जूसीयू (de Jussieu, 1686-1758), डी. केण्डोले (de Candolle, 1778-1841 ) तथा वैन्थम एवं हुकर (Bentham. 1800-1884 and Hooker, 1817 1911) के वर्गीकरण महत्त्वपूर्ण हैं।
(3) वर्गीकरण की जातिवृत्तीय पद्धतियाँ (Phylogenetic Systems)
➽ इन पद्धतियों में जीवों का वर्गीकरण उनके विकासीय (Evolutionary) तथा आनुवंशिक सम्बन्धों पर आधारित है अर्थात् यह जीवों की जातिवृत्त पर आधारित है। पादपों के जातिवृत्तीय वर्गीकरण में कुलों (Families) को पुष्प के विकास के अनुसार जटिलता के बढ़ते क्रम में व्यवस्थित किया गया है। इस पद्धति के अन्तर्गत एंग्लर व प्राण्टल (Engler and Prantl, 1887 1899), हचिन्सन (Hutchinson, 1926-72), तख्ताजान (Takhtajan, 1969), क्रॉनक्विस्ट (Cronquist, 1968, 81) के वर्गीकरण महत्त्वपूर्ण हैं।
➽ एडोल्फ एंग्लर (Adolf Engler, 1884-1930) एवं कार्ल ए. ई. प्राण्टल (Karl AE. Pranti, 1849-1893) नामक दो जर्मन वनस्पतिज्ञों ने अपनी पुस्तक 'डाई नैचुरलाइकेन फ्लेन्जन फैमिलीन' (Die naturlichen pflanjen familien, 1887 1899) में अपनी वर्गीकरण पद्धति प्रस्तुत की, जिसमें सम्पूर्ण पादप जगत अर्थात् शैवाल से लेकर आवृतबीजी पौधों का वर्गीकरण किया गया है।
➽ जॉन हचिन्सन (John Hutchinson, 1926-1972) की वर्गीकरण पद्धति पूर्णरूपेण जातिवृत्तीय अवधारणा (Concept) पर आधारित है। यह वर्गीकरण पद्धति 24 विशिष्ट सिद्धान्तों पर आधारित है जो कि पौधे के पुष्पीय लक्षणों की विकासीय प्रवृत्तियों से सम्बन्धित है।
जैववर्गिकी-विज्ञान अथवा नई वर्गिकी-विज्ञान [BIOSYSTEMATICS OR NEW SYSTEMATICS]
➽ जीवों के वर्गीकरण की कृत्रिम, प्राकृतिक एवं जातिवृत्तीय पद्धतियाँ शुद्ध वर्गिकीय अध्ययनों के अन्तर्गत आती हैं जो कि आकारिकीय लक्षणों एवं विकासीय प्रवृत्तियों से सम्बन्ध रखती हैं। जूलियन हक्सले (Julian Huxley, 1940) ने सर्वप्रथम नई वर्गिकी विज्ञान (New systematics) शब्द का प्रयोग किया जिसमें जैव-विविधता का अध्ययन प्रायोगिक रूप से करने पर जोर दिया गया है। अत: इन्होंने इसे प्रायोगिक वर्गिकी (Experimental taxonomy) भी कहा।
➽ जैववर्गिकी - विज्ञान में जैव-विविधता के सम्बन्ध में सूचनाएँ सभी सम्भव स्रोतों; जैसे- आकारिकी, शारीरिकी, कार्यिकी, जैव रसायन, आण्विक संगठन (Molecular organisation), व्यवहार (Behaviour) जातिवृत्त एवं आनुवंशिक लक्षणों आदि से एकत्र की जाती हैं। इसमें वर्गिकी को केवल परम्परागत विधियाँ ही शामिल नहीं हैं अपितु इसमें जैव विकास, प्राकृतिक भिन्नताएँ, प्रजनन - जीव विज्ञान एवं अनेक जीव विज्ञानी घटनाओं की खोज (Investigations) भी सम्मिलित की जाती हैं।
➽ जैववर्गिकी में जीवों को अधिक प्राकृतिक, जातिवृत्तीय एवं विश्वसनीय तरीके से वर्गीकृत किया जाता है क्योंकि इसमें विभिन्न सम्भव स्रोतों से प्राप्त आँकड़ों का विश्लेषण करके ही कोई परिणाम निकाला जाता है।