जड़ (मूल) क्षेत्र प्रकार एवं रूपांतरणक्षेत्र प्रकार एवं रूपांतरण |Types and Modifications of Roots in Hindi

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जड़ (मूल) क्षेत्र प्रकार एवं रूपांतरण


जड़ (मूल)

जड़ (Root) मूलांकुर (radicle) से निर्मित विभिन्न शाखाओं में फैलकर, भूमि के अन्दर प्रकाश से दूर (negatively phototropic), जल की तलाश में, गुरुत्व की ओर वृद्धि करता है। जड़ें मृदा से जल एवं विभिन्न प्रकार के खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं।

मूलांकुर से विकसित प्रथम जड़ प्राथमिक जड़, जबकि सभी शाखाएँ द्वितीयक जड़ कहलाते हैं। जड़ो में एककोशिकीय मूलरोम पाए जाते हैं।

जड़ों में सन्धियाँ, पर्वसन्धियाँ, पत्तियाँ आदि नहीं पाई जाती है। 

जड़ (मूल) क्षेत्र प्रकार एवं रूपांतरणक्षेत्र प्रकार एवं रूपांतरण 

जड़ (मूल) क्षेत्र प्रकार एवं रूपांतरणक्षेत्र प्रकार एवं रूपांतरण


मूल के क्षेत्र (Zone of Root)

मूल को चार क्षेत्रों में विभक्त किया गया है- 

मूलगोप (Root Cap)

यह जड़ के शीर्ष पर टोपीनुमा भाग होता है। जो विभज्योतक को घर्षण से बचाता है। जलीय पादप जैसे लेम्ना व पिस्टिया में इनके स्थान पर मूलकोटरिकाए या मूलपॉकेट (Root Pocket) पायी जाती है।

विभज्योतक क्षेत्र (Meristematic Region)

यह विभाजनशील कोशिकाओं का क्षेत्र होता है। जो विभाजन करके जड़ की लंबाई बढ़ाती है।

दीर्घीकरण क्षेत्र (Elongation Region)

इस क्षेत्र में विभज्योतक से निर्मित कोशिकाएं वृद्धि करके जड़ की लंबाई बढ़ाती है।

परिपक्वन क्षेत्र (Mature Region)

इस क्षेत्र में परिपक्व तथा विभेदित कोशिकाएं होती है। जो बाह्य त्वचा (Epidermis or Epiblema), वल्कुट (Coetrx), परिरम्भ (Pericycle), मज्जा (Pith), जाइलम, फ्लोएम आदि में विभक्त होती है। इनकी बाह्य त्वचा पर मूल रोम पाए जाते हैं।


जड़ों के प्रकार (Types of Roots)

सामान्यतः जड़ें दो प्रकार की होती हैं-

  • मूसला जड़ (Tap Root )
  • अपस्थानिक जड़ (Adventitious Root)

मूसला जड़ (Tap Root)

मूसला जड़ वह जड़ है, जिसमें मूलांकुर (Radicle) विकसित होकर एक मुख्य या प्राथमिक जड़ (Primary root) का निर्माण करता है, जो अन्य शाखाओं से मोटी होती है तथा अधिक गहराई तक जाती है। इससे कई शाखाएँ निकलती हैं, जिन्हें द्वितीयक जड़ (Secondary root) कहते हैं।

द्वितीयक जड़ों से निकलने वाली शाखाओं को तृतीयक जड़ (Tertiary root) कहते हैं। इस प्रकार बनी प्राथमिक जड़ तथा इसकी शाखाओं को मूसला जड़ तन्त्र (Tap root system) कहते हैं। 

ऐसी जड़ें द्विबीजपत्री पौधों में पायी जाती हैं तथा भूमि में बहुत गहराई तक वृद्धि करके पौधे को मजबूती से खड़ा रखती हैं। यह जड़, चना, मटर, गाजर, मूली, सरसों, आम, नीम इत्यादि  पौधों में पायी जाती है।

 
मूसला जड़ (Tap Root) के प्रकार 

1. तर्कुरूप (Fusiform)

इस प्रकार की जड़ें बीच से मोटी और किनारों पर पतली होती है जैसे-मूली। 

2. कुम्भी रूप (Napiform)

ये जड़ें शीर्ष पर मोटी और फूली हुई होती है तथा नीचे की ओर पतली होती है जैसे शलजम (Turnip), चुकन्दर (Beet)

3. शंकु रूप (Conical)

इस प्रकारी की मूसला जड़े आधार की ओर मोटी तथा नीचे की ओर क्रमशः पतली होती हैं। जैसे-गाजर।

4. श्वसन मूल (Pneumatophores) (न्यूमेटाफ़ोर)

राइजोफोरा (Rhizophora), सुन्दरी (Sundari) आदि पौधे जो दलदली स्थानों पर उगते हैं, में भूमिगत मुख्य जड़ों से विशेष प्रकार की जड़ें निकलती हैं, जिसे न्यूमेटाफोर कहते हैं। ये खूंटी के आकार की होती हैं, जो ऊपर वायु में निकल आती हैं। इनके ऊपर अनेक छोटे-छोटे छिद्र होते हैं जिन्हें न्यूमेथोडस (Pneumathodes) कहते हैं।

अपस्थानिक जड़ (Adventitious root or Fibrous root system)

कुछ पौधों में अकुंरण के कुछ समय बाद मूलांकुर (Redicle) की वृद्धि रुक जाती है और प्रांकुर के आधार या तने की निचली पर्वसन्धियों से रेशे के रूप में जड़ें विकसित हो जाती हैं, उन्हें ही अपस्थानिक या रेशेदार जड़ (Fibrous root) कहते हैं। इस प्रकार से बने जड़ गुच्छ को अपस्थानिक जड़ तन्त्र (Adventitious root system) कहते हैं।

अपस्थानिक जड़ मूलांकुर की वृद्धि एक जाने के कारण जड़े शाखाओ, तनों के आधारीय भागों तथा पत्तियों में निकलती है। यह प्रायः एकबीजपत्री (monocot plants) पौधों में पाई जाती है जैसे-धान, गेहूँ, मक्का, ज्वार, बाजरा, गन्ना इत्यादि।

कुछ द्विबीजपत्री पादकों जैसे बरगद, पान, अमरबेल इत्यादि  में भी अपस्थानिक जड़ें पायी जाती हैं। ये जड़ें भूमि में गहराई तक न जाकर केवल ऊपरी सतह तक फैली होती हैं।

झकड़ा मूलतंत्र (Fibrous Root System)

एकबीजपत्री (Monocots) पादपों में प्राथमिक मूल अल्पजीवी (Short Life) होती है। जिसके कारण प्राथमिक मूल के स्थान अनेक समान लंबाई की जड़ों का निर्माण हो जाता है। ऐसे मूल को झकड़ा मूल तंत्र या रेशेमय मूल तंत्र कहते हैं।

 

अपस्थानिक जड़ों के रूपांतरण (Modifications of adventitious roots):

भोजन संग्रह, पौधों को यांत्रिक सहारा (Mechanical support) प्रदान करने अथवा अन्य विशिष्ट कार्यों को करने के उद्देश्य से अपस्थानिक जड़ें अनेक प्रकार से रूपांतरित हो जाती हैं।

 

(A) कन्दिल जड़ें (For storage of food): 

(i) कन्दिल जड़ें (Tuberous roots): खाद्य पदार्थों के संचय के कारण इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ की कोई निश्चित आकृति नहीं होती है। जैसे-शकरकद।

(ii) पुलकित जड़ें (Fasciculated roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ों में अनेक मांसल फुली हुई जड़ें गुच्छे के रूप में तने के आधार से निकलती हैं। जैसे-डहलिया (Dahlia)

(iii) ग्रन्थिल जड़ें (Nodulose roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें अपने सिरे पर फ्लकर मांसल हो जाती हैं।

(iv) मणिकामय जड़ें (Moniliform roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़े थोड़े-थोड़े अन्तराल पर फूली रहती हैं। ये आकार में मणिकाओं की माला की भाँति होती है। जैसे-अंगूर, कोला (Bittergourd)

 

(B) यांत्रिक सहारा प्रदान करने के लिए (For providing mechanical support): 

(i) स्तम्भ मूल (Prop roots):

कुछ पौधों की शाखाओं से अनेक जड़ें निकलती हैं जो मोटी होकर भूमि में प्रवेश कर जाती हैं। इस प्रकार ये वृक्षों की लम्बी एवं मोटी शाखाओं को सहारा प्रदान करती हैं। इस प्रकार की जड़ें ही स्तम्भ मूल (Prop root) कहलाती हैं। जैसे-बरगद, इण्डियन रबर आादि। 

 

(ii) अवस्तम्भ मूल (stilt roots):

इस प्रकार की जड़ें मुख्य तने के आधार के समीप से निकलकर भूमि में तिरछी प्रवेश कर जाती हैं और पौधे को यांत्रिक सहारा प्रदान करती हैं। जैसे-मक्का, गन्ना आदि।

 

(iii) आरोही मूल (Climbing roots):

इस प्रकार की जड़ें हर्बल तनों की सन्धियों अथवा पर्व सन्धियों से निकलती हैं तथा पौधों को किसी आधार पर चढ़ने में सहायता करती हैं। इस प्रकार की जड़े अगले सिरे पर फूलकर छोटी-छोटी ग्रन्थियाँ बनाती हैं, जिनसे एक तरह का चिपचिपा द्रव स्रावित होता है जो तुरन्त ही वायु के संपर्क में सूख जाता है। जैसे-पान, पोथोस आदि।

 

(C) अन्य जैविक क्रियाओं के लिए रूपान्तरित अपस्थानिक जड़े (Roots modified for performing other vital functions)– 

(i) चूषण मूल (Sucking roots):

इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें कुछ परजीवी पौधों में विकसित होती हैं, जो पोषक पौधों (Host plants) के ऊतकों में प्रवेश कर भोज्य पदार्थों का अवशोषण करती हैं। जैसे-अमरबेल, चन्दन आदि।

 

(ii) श्वसनी मूल (Respiratory roots):

इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें कुछ जलीय पौधों (Aquatic plants) में पाई जाती हैं। इन जलीय पौधों की प्लावी शाखाओं (Floating branches) से विशेष प्रकार की नर्म, हल्की एवं स्पंजी जड़ें निकलती हैं जिनमें वायु भर जाती है। इस प्रकार की जड़ें पौधों को तैरने एवं श्वसन में मदद करती हैं। जैसे- जूसिया।

 

(iii) अधिपादप मूल (Epiphytic roots):

इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें अधिपादपों (Epiphytic plants) में पायी जाती हैं। इस प्रकार की जड़ें पत्तियों के कक्ष से निकलकर हवा में लटकती रहती हैं। इन जड़ों में वेलमिन (velamen) नामक आर्द्रताग्राही स्पंजी ऊतक उपस्थित होता है, जो वायुमण्डल की आर्द्रता को अवशोषित करता है। जैसे- ऑर्किड।

 

(iv) स्वांगीकारक मूल (Assimilatory roots):

इस प्रकार की अपस्थानिक जड़े तने के आधार से निकलकर फैल जाती हैं। ये हरी, लम्बी एवं बेलनाकार होती हैं। इनमें हरितलवक (Chlorophyll) भी पाया जाता है जिस कारण ये प्रकाश संश्लेषण क्रिया करती हैं। जैसे- सिंघाड़ा, टिनोस्पोरा (Tinospora) आदि।

 

जड़ की विशेषताएँ (Characteristics of root)

  • जड़ पौधों के अक्ष का अवरोही (Descending) भाग है, जो मूलांकुर (Radicle) से विकसित होता है।
  •  जड़ सदैव प्रकाश से दूर भूमि में वृद्धि करती है।
  • भूमि में रहने के कारण ही जड़ों का रंग सफेद अथवा मटमैला होता है।
  • जड़ों पर तनों के समान पर्व (Nodes) एवं पर्व सन्धियाँ (Internodes) नहीं पायी जाती है।
  • जड़ों पर पत्र एवं पुष्प कलिकाएँ भी नहीं होती हैं। अतः ये पतियाँ, पुष्प एवं फल धारण नहीं करती हैं।
  • जड़ें सामान्यतः धनात्मक गुरुत्वानुवर्ती (Positive geotropic) तथा ऋणात्मक प्रकाशानुवर्ती (Negative phototropic) होती हैं।
  •  जड़ का सिरा मूल गोप (Root cap) द्वारा सुरक्षित रहता है।
  • जड पर एककोशिकीय रोम (Unicellular hairs) होते हैं।

जड़ों के कार्य Functions of Roots)

  • जड़ें मूल रोमों की सहायता से जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करते है।
  •  (जलोद्भिद् में मूल रोमों का अभाव होता है) पिस्टिया व लेमना पौधों में मूल गोप की जगह मूल पॉकेट (root pocket) पाया जाता है।
  • मूल रोम (Root hairs) तथा जड़ों के कोमल भाग जल और घुलित खनिज लवण का अवशोषण करते हैं।
  • यह पौधों को भूमि में स्थिर रखती है।
  • कुछ जड़ें अपने अंदर भोज्य पदार्थों का संग्रह करते हैं प्रतिकूल परिस्थितियों में इन संचित भोज्य पदार्थों का पौधों द्वारा उपयोग किया जाता है।

एकबीजपत्री तथा द्विबीजपत्री जड़ में अन्तर 

 

एकबीजपत्री जड़

          इसमें द्वितीयक वृद्धि नहीं पाई जाती है।

          इसमें पिथ पूर्ण विकसित होता है।

          परिरम्भ से केवल पार्थ मूलों का निर्माण करती है।

          इनके संवहन पूल की संख्या सामान्यतया छ: से अधिक होती है।

          इसमें कैम्बियम का अभाव होता है। ।

द्विबीजपत्री जड़

          इसमें द्वितीयक वृद्धि पाई जाती है।

          इसमें पिथ अल्प विकसित होता है।

          परिरम्भ पार्श्व मूलों तथा द्वितीयक विभज्योतक दोनों का निर्माण करती है।

          इनके संवहन पूल की संख्या सामान्यतया छः से कम होती है।

          इसमें कैम्बियम पाया जाता है।

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